नई दिल्ली
चुनावों का अगला चक्र नजदीक आने के साथ ही नेताओं में मतदाताओं से सस्ती या मुफ्त बिजली देने का वादा करने की होड़-सी मच गई है। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने तो भुगतान न करने वाले उपभोक्ताओं के बिल फाड़ते हुए उनके कनेक्शन बहाल करने की घोषणा तक कर डाली। वहीं, दिल्ली में मुफ्त बिजली के दांव के सफल होने के बाद आप पंजाब और उत्तराखंड के वोटरों को भी इसी वादे से लुभाने की कवायद में जुट गई है। हालांकि, लंबी अवधि की बात करें तो मुफ्त बिजली के वादे के कई दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं।
अंत में कौन करता है सब्सिडी का भुगतान
वितरण कंपनियां उत्पादकों से व्यावसायिक दर पर बिजली खरीदती हैं। जब कोई सरकार उपभोक्ताओं को सस्ती या मुफ्त बिजली की पेशकश करती है तो उसे वितरण कंपनियों को शेष राशि का भुगतान करना पड़ता है। यह भुगतान दो तरह से किया जाता है। पहला, सरकार बिजली वितरण कंपनियों पर चढ़ा ऋण अपने ऊपर लेते हुए उसे सरकारी खजाने से भरती है। दूसरा, वह अन्य वर्गों के उपभोक्ताओं के लिए बिजली दरों में इजाफा कर देती है। इस प्रक्रिया को ‘क्रॉस सब्सिडी’ कहते हैं। दोनों ही सूरतों में आम उपभोक्ताओं को ही सब्सिडी का बोझ उठाना पड़ता है। हालांकि, आंकड़े दर्शाते हैं कि ‘क्रॉस सब्सिडी’ अंतर के भुगतान में सक्षम नहीं है। इससे बिजली कंपनियों पर बकाया राशि बढ़ती चली जाती है।
ऊर्जा मंत्रालय के पोर्टल ‘प्राप्ति’ पर उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि 22 अक्तूबर 2021 तक बिजली वितरकों को उत्पादन कंपनियों को कुल 1.01 लाख करोड़ रुपये का बकाया भुगतान करना था। वित्त वर्ष 2021-22 की शुरुआत में यह धनराशि 79112 करोड़ रुपये के करीब थी, जो महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) पर सालभर में खर्च होने वाली रकम से कहीं ज्यादा है। यही नहीं, बकाया राशि दो श्रेणियों में बंटी होती है। पहली, अधिकतम 60 दिन, जिसमें वितरकों पर कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लगता। दूसरी, 60 दिन से अधिक, जिसमें उत्पादक बकाया राशि पर ब्याज वसूलते हैं। आंकड़ों से स्पष्ट है कि इस वित्त वर्ष की शुरुआत के बाद से 60 दिन से अधिक श्रेणी की बकाया राशि में आठ फीसदी का इजाफा हुआ है। यह रकम कुल बकाया राशि का 80 फीसदी हो गई है।