मुंबई
आजकल कुछ लोग मिलकर एक वाट्सएप ग्रुप बनाते हैं। कुछ दिनों तक यह ग्रुप बहुत अच्छा चलता है। आपस में खूब जोक शेयर किए जाते हैं। फिर कुछ दिनों बाद ग्रुप के दो-तीन लोगों की मतभिन्नता सामने आने लगती है। आपस में चलनेवाली स्वस्थ बहस कड़वाहट में बदलने लगती है। जब ये कड़वाहट बर्दाश्त के बाहर होने लगती है तो ग्रुप का बहुमत मिलकर नए नाम से एक नया ग्रुप बना लेता है। जिनके कारण पहले ग्रुप में कड़वाहट पैदा हुई थी, वे पुराने ग्रुप में ही रह जाते हैं और वह ग्रुप धीरे-धीरे अप्रासंगिक हो जाता है। ममता बनर्जी का बुधवार को मुंबई में दिया गया बयान ऐसा ही एक नया ग्रुप बनाने की ओर संकेत करता दिखाई दे रहा है। जिसमें वह होंगी, शरद पवार होंगे, और भी कई लोग होंगे, लेकिन राहुल गांधी नहीं होंगे। ममता को भरोसा है कि उनके नए ग्रुप में अलग-अलग राज्यों के ऐसे छत्रप शामिल होंगे, जो कांग्रेस और भाजपा को एक साथ टक्कर दे सकें। ममता को उम्मीद है कि अगले लोकसभा चुनाव के बाद ऐसी परिस्थितियां बनेंगी कि इस प्रकार बनाया गया गैर भाजपा-गैर कांग्रेस गठबंधन कम से कम इतनी सीटें लाने में सफल में होगा कि वह मोदी की भाजपा को चुनौती दे सके।
ममता को यह भरोसा भी है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद संख्याबल एवं नेतृत्व अनुभव के आधार पर उस समय का ‘देवेगौड़ा’ बनने का अवसर उन्हें ही मिलेगा। यही कारण है कि बुधवार को जब पत्रकारों ने उनसे सवाल किया कि क्या नए बनने वाले ‘गैर कांग्रेसी मोर्चे’ का नेतृत्व शरद पवार करेंगे, तो वह बड़ी सफाई से यह सवाल टाल गईं। उन्होंने कहा कि हम लोग मिलकर निर्णय करेंगे। ममता को यह भरोसा भी है कि लोकसभा चुनाव के बाद कोई गैर भाजपा सरकार बनने की परिस्थिति बनी तो कांग्रेस को भाजपा को तीसरी बार सरकार बनाने से रोकने के नाम पर झक मारकर उनके नेतृत्ववाले मोर्चे को ही समर्थन करना पड़ेगा। निश्चित रूप से ममता का राजनीतिक उभार अन्य क्षेत्रीय छत्रपों की तुलना में बेहतर रहा है। अन्य की तुलना में वह अधिक तेजतर्रार भी हैं। उन्हें लगता है कि भाजपानीत केंद्र सरकार के गले में घंटी बांधने के लिए कई क्षेत्रीय छत्रपों को एक नेतृत्व की जरूरत है। एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जिसपर देश का मुस्लिम वर्ग भी भरोसा करता हो। इसी रणनीति के तहत ममता अपने इस ‘नए वाट्सएप ग्रुप’ में राहुल-सोनिया को बाहर और शरद पवार को अपने साथ रखना चाहती हैं। वह चाहती हैं कि शरद पवार एक ‘मोहरा’ बनकर उनका साथ दें और वह ‘क्वीन’ बनकर नेतृत्व करें। शरद पवार का अनुभव एवं देश के अन्य क्षेत्रीय छत्रपों से उनके संबंध उनके (ममता के) काम आएं। जरूरत पड़ने पर शरद पवार उनके समर्थन में खड़े नजर आएं। ममता को यह भी लगता होगा कि शरद पवार की बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के साथ उनकी महत्वाकांक्षाएं कम हो गई होंगी।
ममता की सोच यहीं गलत साबित हो सकती है, क्योंकि राजनीति में महत्वाकांक्षाएं उम्र की मोहताज नहीं होतीं। सेहत के पैमाने पर नरसिंह राव का उदाहरण सबके सामने है। जहां तक अनुभव की बात है तो जिस दौर में ममता स्कूल में रही होंगी, उस दौर में शरद पवार पहली बार विधायक चुने जा चुके थे। कांग्रेस जैसी देश की जिस ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ को ममता आज किनारे लगाने की कोशिश कर रही हैं, उसे शरद पवार पहली बार आज से करीब 42 साल पहले किनारे लगाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। पवार उसके बाद दो बार और कांग्रेस को धता बताकर अपनी अलग पार्टी बनाने का प्रयोग कर चुके हैं। उन्हें अपने हर प्रयोग के बाद सत्ता हासिल हुई है। रही बात अलग-अलग राज्यों से छत्रपों को इकट्ठा लाने की, तो 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले शरद पवार एक-दो नहीं, 22 क्षेत्रीय दलों को ईवीएम के खिलाफ एक मंच पर ला चुके हैं। इसके बाद भी राज्यसभा में अनुपस्थित रहकर तीनों कृषि कानूनों को परोक्ष समर्थन देनेवाले शरद पवार उन्हीं कानूनों का विरोध करनेवाले किसान आंदोलन के मार्गदर्शक बन छत्रपों की राजनीति से उसे जोड़ने का प्रयास करते दिखाई दिए थे।यह सच है कि करीब 25 साल पहले अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद के झंडे तले छत्रपों का मजबूत संगठन तैयार करने में जया-माया-ममता की भूमिका अहम रही थी। उनमें से केवल ममता ही अब राजनीतिक दृष्टि से प्रासंगिक हैं। उस समय के अनुभव को ध्यान में रखते हुए स्टालिन, जगनमोहन रेड्डी, चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं को साथ लेना ममता के लिए आसान हो सकता है। किंतु शरद पवार की उठापटक वाली राजनीतिक क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए ऐसे प्रयासों में वह ममता को आसानी से मात दे सकते हैं। ऐसी स्थिति आने पर फिर बनने वाले वाट्सएप ग्रुप में शरद पवार और ममता बनर्जी में कौन किसे बाहर का रास्ता दिखाएगा, यह देखने लायक होगा।