जबलपुर
दिवाली पर माता लक्ष्मी की आकर्षक प्रतिमाएं बाजार में खूब सजी हैं, लेकिन इनके बीच माता लक्ष्मी का ऐसा भी एक रूप है, जो ज्यादा खास है। इसे ग्वालन कहा जाता है। इसके बिना बुंदेलखंड व महाकोशल में दिवाली की पूजा अधूरी मानी जाती है। इन्हें दरिद्र लक्ष्मी भी कहा जाता है। दिवाली के पूजन में माता लक्ष्मी, भगवान गणेश के साथ इनकी प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। नौ दीपों वाली ग्वालन को धन धान्य और सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि ग्वालन के पूजन से गृह क्लेश, दोष आदि का निवारण भी होता है।
नौ दीपों से नौ ग्रहों का पूजन
ज्योतिषाचार्य जनार्दन शुक्ला के अनुसार माता लक्ष्मी के मूल 18 रूप हैं, जिनमें महालक्ष्मी प्रधान देवी हैं। इनका एक रूप दरिद्र लक्ष्मी या ग्वालन रूप भी है, जो बुंदेलखंड, महाकोशल, छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र में दिवाली पर पूजा जाता है। ग्वालन की प्रतिमा नौ दीपों वाली होती है। जिसका अर्थ है नौ ग्रहों को प्रसन्न करना। प्रत्येक दीप एक ग्रह का प्रतीक होता है। इन दीपों में पूजन के समय प्रज्ज्वलित करने के बाद लाई, बताशा, सिंघाड़ा आदि का भोग भी अर्पित किया जाता है। इनके पूजन से दरिद्रता का नाश होता है।
1000 साल से पुरानी परम्परा
पं. जनार्दन शुक्ला ने बताया लोकमान्यताओं के अनुसार ग्वालन की पूजन परम्परा 1000 से ज्यादा पुरानी है। मूलत: बुंदेलखड़ में इसके पूजन की शुरुआत हुई थी, जो आसपास के प्रदेशों तक चली गई। माना जाता है कि पहले सम्पन्न लोग लक्ष्मी गणेश की सुंदर प्रतिमाएं, सैकड़ों दीप जलाकर दिवाली मनाते थे, लेकिन गरीब एवं निचले तबके के लोगों को इसके योग्य नहीं माना गया, तब ग्वालन का पूजन प्रचलित हो गया। इसमें लक्ष्मी माता के साथ दीप भी लगे आते हैं। ग्वालन की पूजा केवल मिट्टी की प्रतिमा में ही की जाती है। एक साल तक पूजन के बाद अगली दिवाली पर इनका विसर्जन घर के गमलों, आंगन में कर दिया जाता है।