देहरादून
त्याग में त्यागी होने का अहंकार आ सकता है, लेकिन यदि प्राप्त वस्तु में संतोष मिल जाए तो यह वस्तु या धन के त्याग से भी बड़ा त्याग है। संतोष और भक्ति में असंतोष ही हमें उन्नत कर सकता है। मनुष्य को अर्थ का उपयोग त्याग में नहीं, बल्कि सृजन में करना चाहिए। यह उद्गार स्वामी मैथिलीशरण ने सुभाष रोड स्थित स्वामी चिन्मय मिशन आश्रम में चल रही भरत चरित्र कथा के पांचवें दिन व्यक्त किए। श्री सनातन धर्म सभा गीता भवन की ओर से आयोजित सत्संग में प्रवचन करते हुए स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि भरत ने अयोध्या की सारी संपत्ति का संरक्षण किया। उनका मानना था कि संसार की जितनी भी संपदा है वह सब राम की है। यदि हर उपलब्ध वस्तु को राम की सेवा सामग्री बना दिया जाए तो वह राम से जुड़ जाएगी और अपने असद् स्वरूप से हटकर सद्रूप हो जाएगी। लेकिन, जब वे ही पदार्थ और गुण राम से विमुख कर दें तो वे जला देने योग्य हैं। तब वह ज्ञान, अज्ञान और योग, कुयोग हो जाता है। श्री सनातन धर्म सभा गीता भवन की ओर से आयोजित सत्संग में स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि रावण ने हनुमान की पूंछ को जलाना चाहा तो वह नहीं जली पर रावण की लंका पूरी जल गई। व्यक्ति को यदि क्या नहीं करना चाहिए का ज्ञान हो जाए तो क्या करना चाहिए, इसका ज्ञान अपने आप हो जाता है।

