पूर्व प्रधानमंत्री चौधरीचरण सिंह की 29 मई को पुण्यतिथि है। उनका जन्म 23 दिसम्बर, 1902 मेरठ और मृत्यु- 29 मई, 1987 को हुई थी।चौधरीचरण सिंह भारत के पांचवें प्रधानमंत्री थे, चरण सिंह किसानों की आवाज़ बुलन्द करने वाले प्रखर नेता माने जाते थे और चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक रहा। यह समाजवादी पार्टी तथा कांग्रेस के सहयोग से देश के प्रधानमंत्री बने और दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहें।
चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर ग्राम में एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में हुआ था। इनका परिवार जाट पृष्ठभूमि वाला था। इनके पुरखे महाराजा नाहर सिंह ने 1887 की प्रथम क्रान्ति में विशेष योगदान दिया था। महाराजा नाहर सिंह वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में हरियाणा में आता है। महाराजा नाहर सिंह को दिल्ली के चांदनी चौक में ब्रिटिश हुकूमत ने फ़ांसी पर चढ़ा दिया था।
चौधरी चरण सिंह की प्राथमिक शिक्षा नूरपुर ग्राम में ही पूर्ण हुई, जबकि मैट्रिकुलेशन के लिए इन्हें मेरठ के सरकारी उच्च विद्यालय में भेज दिया गया। 1923 में 21 वर्ष की आयु में इन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली। दो वर्ष के पश्चात 1925 में चौधरी चरण सिंह ने कला स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने गाज़ियाबाद में वक़ालत करना आरम्भ कर दिया।
1929 में चौधरी चरण सिंह मेरठ आ गए। मेरठ आने के बाद इनकी शादी जाट परिवार की बेटी गायत्री के साथ सम्पन्न हुई। गायत्री देवी का परिवार रोहतक ज़िले के ‘गढ़ी ग्राम’ में रहता था। यह वह समय था जब देश में स्वाधीनता संग्राम तीव्र गति पकड़ चुका था। एक बार राजनीति से जुड़ने के बाद चौधरी चरण सिंह का इससे कभी मोहभंग नहीं हुआ। उन दिनों सुशिक्षित लोगों की कमी नहीं थी, जो देश सेवा के लिए कांग्रेस से जुड़ रहे थे। आज़ादी के बाद 1952, 1962 और 1967 में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य विधानसभा के लिए चुने गए।
चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे।
इसके बाद कांग्रेस के विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा। केन्द्रीय स्तर का विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। कांग्रेसी नेता अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार इंदिरा कांग्रेस और सिंडीकेट कांग्रेस के साथ जुड़ गए। चूंकि चौधरी चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे, इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बन गए। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले में बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य था। फिर यह इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश भी था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे। अत: इंदिरा गांधी ने 2 अक्टूबर, 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा गांधी के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और दुर्भावना द्विगुणित हो गई। लेकिन उत्तर प्रदेश की ज़मीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदख़ल करना सम्भव नहीं था।
1977 में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर जयप्रकाश नारायण के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। इसी के बाद मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आए। इस प्रकार 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए।
इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते ख़राब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बग़ावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिख़राव आरम्भ हो जाएगा। अत: इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली। वह 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बने। लेकिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने यह स्पष्ट कह दिया कि वह लोकसभा में अपना बहुमत 20 अगस्त, 1979 तक सिद्ध करें। इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। अब यह प्रश्न नहीं था कि चौधरी साहब किसी भी प्रकार से विश्वास मत प्राप्त कर लेंगे। वह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असम्भव था।
प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफ़ारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की भाँति जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण जनता को उनसे निश्चय ही सहानुभूति होगी। उन्हें उत्तर प्रदेश की जनता से काफ़ी उम्मीद थी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी, वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में ‘किसान राजा’ के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी, 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बित करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धान्तवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फ़ीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। चरण सिंह सामाजिक न्याय के पोषक और लोक सेवा भावना से ओत-प्रोत रहे। चरण सिंह एक राजनीतिज्ञ थे और प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पर पहुँचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी। वह जिस कार्य को करने का मन बना लेते थे, फिर उसे पूरा करके ही रहते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यक़ीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रखा।
बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने ‘अबॉलिशन ऑफ़ ज़मींदारी’, ‘लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप’ और ‘इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस’ नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्त्वपूर्ण कारण बना, यद्यपि वह ग्रामीणों के परामर्शदाता बनकर लोक कल्याण करते रहे।
मृत्यु
लोक कल्याण के दौरान उम्र भी अपना असर दिखाने लगी थी। अन्तत: उनकी जीवन यात्रा का रथ 29 मई, 1987 को थम गया। 84 वर्ष से अधिक उम्र पाने वाला वह किसान नेता मृत्यु के आग़ोश में चला गया। वह गांधीवादी विचारधारा के साथ ही अन्त तक अपना जीवन निर्वाह करते रहे। उनमें देश के प्रति वफ़ादारी का भाव था। वह कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। इतिहास में इनका नाम प्रधानमंत्री से ज़्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा।